बुधवार, 17 सितंबर 2008

आप-हम

आप-हम में आप सब का स्वागत है। पहली बार मैं, मैं से निकलकर हम सब से मुखातिब हूँ।
कुछ कहता हूँ-
....
जिंदगी के मेले
चुनौतियों के रेले
हम निपट अकेले।

निर्दयी समय…नित नए खेल
मसहलत-खुदगर्जी.. गजब मेल
तार-तार संवेदना
छार-छार मेरा मना
बाजार के छली नारे
बिक रहे लोग सारे
हाय विडंबना, उधर वारे..उधर न्यारे
इधर हारे..सब बेचारे
अंधेरे रास्ते...षड्यंत्रों का घेरा
बस्ती-बस्ती भेड़ियों का डेरा
सीलन है..घुटन है...अजब सा ये सफर
बंद रास्ते.. बंद गलियां...जल रहा ये शहर
अभिव्यक्ति पर पहरे
जख्म कई गहरे
गहरी खामोशी... मृत परिवेश
आदिम अवशेष...प्रश्न कई शेष।
.......

यह कविता नहीं है जिंदगी है, किसी न किसी की पहेली है...

आप का साथी-
सतीश सिंह